ग़ज़ल
जो सोच रहे हैं हम , वो करके दिखाना है
अंधियार मिटे जिससे , वो दीप जलाना है
इक आग है सीने में ,तस्वीर बदलने की
तुम साथ ज़रा दे दो , ये मुल्क़ सजाना है
शोहरत के लिये यारों ,हम शे`र नहीं कहते
जो नींद में डूबे हैं ,उनको ही जगाना है
उस मोड़ पे हैं अब हम ,कोई राह न सूझे है
ख़ुद को भी बचाना है , रिश्ता भी निभाना है
अहसान भुलाने में ,दो पल भी न लगते हैं
उम्मीद न रक्खो तुम , खुदगर्ज़ ज़माना है - नित्यानंद `तुषार`
(वर्तमान साहित्य , दिसम्बर 2010 में प्रकाशित)
जो सोच रहे हैं हम , वो करके दिखाना है
अंधियार मिटे जिससे , वो दीप जलाना है
इक आग है सीने में ,तस्वीर बदलने की
तुम साथ ज़रा दे दो , ये मुल्क़ सजाना है
शोहरत के लिये यारों ,हम शे`र नहीं कहते
जो नींद में डूबे हैं ,उनको ही जगाना है
उस मोड़ पे हैं अब हम ,कोई राह न सूझे है
ख़ुद को भी बचाना है , रिश्ता भी निभाना है
अहसान भुलाने में ,दो पल भी न लगते हैं
उम्मीद न रक्खो तुम , खुदगर्ज़ ज़माना है - नित्यानंद `तुषार`
(वर्तमान साहित्य , दिसम्बर 2010 में प्रकाशित)
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