Monday, October 31, 2011

जो दौर था बुरा, वो भी गुज़र गया - -.नित्यानंद तुषार `


प्रतिष्ठित हिन्दी पत्रिका `हँस` के नवम्बर 2011 अंक में
आप हमारी ये ग़ज़ल पूरी पढ़ सकते हैं,
यहाँ कुछ पंक्तियाँ दी जा रहीं हैं

जो दौर था बुरा, वो भी गुज़र गया
कुछ हादसे हुए , फिर मैं उबर गया

जो सच था वो कहा, तुम क्यूँ खफ़ा हुए
चेहरा बुझा है क्यूँ, पानी उतर गया

इक आदमी हुआ, इस मुल्क़ में `तुषार`
पहुँचा जहाँ न वो, उसका असर गया - - नित्यानंद तुषार `

Sunday, October 2, 2011

हम उन्हें भी चाहते हैं, दुश्मनों को क्या पता - -नित्यानंद `तुषार`



ये सफ़र कितना कठिन है रास्तों को क्या पता,
कैसे -कैसे हम बचे हैं , हादसों को क्या पता,

 आँधियाँ चलतीं हैं तो फिर, सोचतीं कुछ भी नहीं,
टूटते हैं पेड़ कितने ,आँधियों को क्या पता,

एक पल में राख कर दें, वो किसी का आशियाँ,
कैसे घर बनता है यारो ,बिजलियों को क्या पता,

अपनी मर्ज़ी से वो चूमें, अपने मन से छोड़ दें,
किस क़दर बेबस हैं गुल ,ये तितलियों को क्या पता,

आईने ये सोचते हैं ,सच कहा करते हैं वो,
उनके चेहरे पर हैं चेहरे आईनों को क्या पता,

जाने कब देखा था उसको ,आज तक उसके हैं हम,
क़ीमती कितने थे वे पल , उन पलों को क्या पता,

जैसे वो हैं हम तो ऐसे हो नहीं सकते `तुषार`,
हम उन्हें भी चाहते हैं, दुश्मनों को क्या पता - -नित्यानंद `तुषार`

(प्रस्तुति --यश)