Thursday, December 30, 2010

आसान था जिसे , कहना बहुत तुझे , वो ढाई लफ्ज़ भी , बोला नहीं गया - नित्यानंद `तुषार`

आज फिर काफ़ी दिन बाद आपसे बात कर पा रहे हैं पर सफ़र की थकान भी अपनी जगह है पहले सोचा कि फिर कभी, फिर सोचा कि इसी तरह दिन निकलते चले जाते हैं और अंतराल बढ़ता जाता है , इसलिए लैपटॉप ऑन कर ही लिया है .आज एक ग़ज़ल आपके लिये दे रहे हैं ,ये ग़ज़ल इंडिया  न्यूज़ नामक पत्रिका में काफ़ी पहले प्रकाशित हो चुकी है आप ग़ज़ल क़ा आनंद लें .
                       ग़ज़ल  
तेरे क़रीब वो देखा नहीं गया
वो ले गया तुझे,रोका नहीं गया
यादें उभर गईं,बातें निखर गईं
मैं रात भर जगा ,सोया नहीं गया
तुझसे बिछुड़  गए ,फिर भी जुड़े रहे
तेरे ख़याल को तोडा नहीं गया
कितने बरस हुए , तेरी खबर नहीं
तेरे सिवाय कुछ ,सोचा नहीं गया
हर मोड़ पर मिले ,कितने हँसीन  रंग
फिर भी कभी ये दिल, मोड़ा नहीं गया 
कुछ साल एक दम, आकर खड़े हुए 
ख़त देख तो लिया ,खोला नहीं गया 
आसान था जिसे , कहना बहुत तुझे 
वो ढाई लफ्ज़ भी , बोला नहीं गया         -  नित्यानंद `तुषार`  

Saturday, December 18, 2010

कैसा जुनून है ये , कैसी दीवानगी है नित्यानंद `तुषार`

 कई  दिन  से आपसे बात नहीं हो पाई .कुछ कार्यक्रम ही ऐसे थे कि वक़्त कैसे उड़ गया  कुछ   पता ही नहीं चला ,थकान भी है आज हम ज्यादा बात नहीं करेंगे  . आराम भी करना है पर  आपके लिए अपने एक गीत की ये पंक्तियाँ दे रहे हैं. शायद आपको अच्छी लगें , आप इन पंक्तियों का आनंद लें

 कैसा     जुनून    है ये ,  कैसी       दीवानगी है
ख़ुद को   भुला   के    मैंने,   तेरी  तलाश की है
तेरा   ही   ज़िक्र   है अब,  तेरी   ही बात है अब 
तुझसे ही दिन शुरू है ,तुझसे  ही रात है अब 
हर    साँस    अपनी    मैंने ,  तेरे ही नाम की है 
कैसा     जुनून     है  ये,     कैसी       दीवानगी है ......- नित्यानंद `तुषार` 

Wednesday, December 8, 2010

दुश्मनी से` तुषार` क्या हासिल

  दोस्तो
                                      आज काफ़ी दिन के बाद आपसे मुलाक़ात हो पा रही है.चलिए मुलाक़ात हुई तो सही
आज आपके लिये अपनी वो ग़ज़ल पेश कर रहे हैं जो अचानक वाराणसी बम ब्लास्ट के बाद याद आ गयी है
ग़ज़ल काफ़ी पहले(18-मार्च 1993को  ) लिखी गयी थी पर दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है की आज भी हालत    बिलकुल नहीं बदले  हैं .ये ग़ज़ल हमारे  ग़ज़ल संग्रह          सितम की उम्र छोटी है     में 1996 में छपी थी.यूँ यदि कोई रचना समय गुज़रने के बाद भी प्रासंगिक हो तो वह रचना श्रेष्ठ मानी जाती है ,और अगर ऐसी रचना हो जाये तो लेखक या कवि को काफ़ी ख़ुशी होती है,उसे कालजयी कहा जाता है , पर हमें  आज  इस रचना के प्रासंगिक होने के बावजूद कोई ख़ुशी नहीं है, हम  ये चाहते  हैं  कि हमारी  ये रचना बहुत जल्द अप्रासंगिक हो जाये, अर्थात हालात बदल जाएँ ,हादसे रुक जायें ,बेगुनाह न मारे जायें ........दुआ करिए की ऐसा हो , आइये ग़ज़ल पढ़ें.

ग़ज़ल

ये   तो       सोचो   सवाल  कैसा है
देश   क़ा    आज   हाल    कैसा  है
जिससे   मज़हब निकल नहीं पाते
साजिशों   क़ा   वो   जाल कैसा है
आए       दिन हादसे  ही   होते  हैं 
सोचता      हूँ     ये  साल कैसा  है
आपने   आग   को    हवा   दी  थी 
जल    गए    तो मलाल    कैसा है
  
जान    लेता  है     बेगुनाहों     की 
आपका    ये    कमाल      कैसा है
दुश्मनी  से`   तुषार`  क्या हासिल 
दोस्ती  क़ा    ख़याल   कैसा      है
                                             नित्यानंद तुषार