दोस्तो
आज काफ़ी दिन के बाद आपसे मुलाक़ात हो पा रही है.चलिए मुलाक़ात हुई तो सही
आज आपके लिये अपनी वो ग़ज़ल पेश कर रहे हैं जो अचानक वाराणसी बम ब्लास्ट के बाद याद आ गयी है
ग़ज़ल काफ़ी पहले(18-मार्च 1993को ) लिखी गयी थी पर दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है की आज भी हालत बिलकुल नहीं बदले हैं .ये ग़ज़ल हमारे ग़ज़ल संग्रह सितम की उम्र छोटी है में 1996 में छपी थी.यूँ यदि कोई रचना समय गुज़रने के बाद भी प्रासंगिक हो तो वह रचना श्रेष्ठ मानी जाती है ,और अगर ऐसी रचना हो जाये तो लेखक या कवि को काफ़ी ख़ुशी होती है,उसे कालजयी कहा जाता है , पर हमें आज इस रचना के प्रासंगिक होने के बावजूद कोई ख़ुशी नहीं है, हम ये चाहते हैं कि हमारी ये रचना बहुत जल्द अप्रासंगिक हो जाये, अर्थात हालात बदल जाएँ ,हादसे रुक जायें ,बेगुनाह न मारे जायें ........दुआ करिए की ऐसा हो , आइये ग़ज़ल पढ़ें.
ग़ज़ल
ये तो सोचो सवाल कैसा है
देश क़ा आज हाल कैसा है
जिससे मज़हब निकल नहीं पाते
साजिशों क़ा वो जाल कैसा है
आए दिन हादसे ही होते हैं
सोचता हूँ ये साल कैसा है
आपने आग को हवा दी थी
जल गए तो मलाल कैसा है
जान लेता है बेगुनाहों की
आपका ये कमाल कैसा है
दुश्मनी से` तुषार` क्या हासिल
दोस्ती क़ा ख़याल कैसा है
नित्यानंद तुषार
2 comments:
super like.
सामयिक एवं बेहतरीन गजल
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