Sunday, September 30, 2012

ज़िन्दगी, ज़िन्दगी हो जाती - -नित्यानंद `तुषार`

आज एक और रंग आपके लिए

जिसे दूर रहकर भी मैं जी रहा था
जिसकी ख़ुशबू से मैं हर समय भीगा रहता था
जिसके लिये मैं तब जगता था जब दुनिया सो जाती थी
जिसके लिये मैं कई -कई घंटे तपती सड़क पर
तेज़ धूप में खड़ा रहता था
जिसे महसूस करने के लिये ,देखने के लिये
मैं बारिश में भीगता रहता था
होस्टल से निकलकर ठिठुरती सर्दी में

उसी सड़क पर आ जाता था,
जो सड़क उसके स्कूल और घर को जोडती थी
और ऐसा तब भी होता था
जब तबीयत भी ख़राब होती थी
फिर वो शहर छूट गया
पर उसके प्रति लगाव नहीं छूटा
वो दूर रहकर भी मेरे साथ चलती रही
ज़िन्दगी रंग बदलती रही
साल दर साल गुज़रते गए
ये पता भी न था कि वो कहाँ हैं.
कभी मिलना भी होगा या नहीं
पर फिर भी उसकी यादें धूमिल नहीं हुईं
वो मेरे साथ चलती रही
फिर अचानक दो दशक से भी अधिक समय के बाद एक दिन
उसके बारे में facebook से पता लगा
उससे बातें हुई ,सब कुछ कहा सुना गया
अब फ़ोन आता है ,फ़ोन जाता है
मेरा हाल उसे और उसका हाल मुझे पता चल जाता है
पर मिलने की बात आते ही वह टाल जाती है
मैं हैरान हूँ
उसमें उस शख्स से मिलने कि ख्वाहिश ही नहीं
जो उसे तीस वर्ष से चाहता है
जो उसे सोचता रहा है, जो उसे जीता रहा है
जो उसे गीत ग़ज़ल कविताओं में चित्रित करता रहा है
उसे ख़ुद को पत्थर कहना अच्छा लगता है
उसने उस शख्स की किताब लेने से इन्कार कर दिया
जिसे लाखों लोग पढ़ते हैं ,
करोड़ों लोग टी वी पर सुनते हैं, देखते हैं
उसने उस शख्स की किताब लेने से इन्कार कर दिया
क्या उसकी किताब लेने से उसकी उँगलियाँ जल जातीं
वो शख्स जो उसे शायद अपनी अंतिम साँस तक भी नहीं भूल सकेगा
उसी के लिये, उससे मिलने के लिये उसके पास पाँच मिनट का भी वक़्त नहीं
जिसने अपनी ज़िंदगी के खूबसूरत तीस वर्ष उसे दे दिये
मैं सोच रहा हूँ कि ऐसा क्यूँ होता है
कोई ऐसा और कोई वैसा क्यूँ हो जाता है
मैं क्यूँ उसे भूल नहीं पाता और वो मेरी तरह क्यूँ नहीं सोच पाती
अगर सोच पाती तो,
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी हो जाती - -नित्यानंद `तुषार` .

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